Jump to content

User:2140885 Prisha Vaswani/sandbox

From Wikipedia, the free encyclopedia

गाँधी - आंबेडकर डिबेट

[edit]

डॉ. आंबेडकर और महात्मा गांधी दो भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधि हैं। वैश्विक संदर्भ में आंबेडकर पाश्चात्य दर्शन (तर्क) के पक्ष में खड़े हैं तो गांधी गैर पाश्चात्य दर्शन (आस्था) के पक्ष में खड़े हैं। भारतीय संदर्भ में डा. आंबेडकर बौद्ध दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं तो गांधी वैदिक दर्शन का।

दोनों विश्वदृष्टियां एक दूसरे की विरोधी हैं। गांधी की दृष्टि में भारत के नवनिर्माण का अर्थ था भारत में वैदिक संस्कृति के मूल्यों की स्थापना और डॉ. आंबेडकर पाश्चात्य आधुनिक मूल्यों के आधार पर भारत का नवनिर्माण करना चाहते थे और इन मूल्यों को बौद्ध सभ्यता के मूल्यों से जोड़ते थे। भारतीय राजनीति आज भी इन्हीं दोनों दृष्टिकोणों के बीच संघर्ष की राजनीति है। दोनों महापुरुषों की मंजिलें अलग हैं, इसलिए रास्ते भी अलग हैं और साधन भी अलग हैं।

गाँधी के विचार

[edit]
Mahatma Gandhi


गांधी के मुताबिक यदि जाति व्यवस्था से छुआ-छूत जैसे अभिशाप को बाहर कर दिया जाए तो पूरी व्यवस्था समाज के हित में काम कर सकती है | इसकी तार्किक अवधारणा के लिए गांधी ने गांव को एक पूर्ण समाज बोलते हुए विकास और उन्नति के केन्द्र में रखा | गांधी ने पूर्ण विकास के लिए लोगों को गांव का रुख करने की वकालत की. गांधी के मुताबिक देश की इतनी बड़ी जनसंख्या का पेट सिर्फ इंडस्ट्री या फैक्ट्री के जरिए नहीं भरा जा सकता है. इसके लिए जरूरी है कि औद्योगिक विकास को ग्रामीण अर्थव्यवस्था के केन्द्र में रखते हुए विकसित किया जाए | गांधी सत्याग्रह में भरोसा करते थे| उन्होंने ऊंची जातियों को सत्याग्रह के लिए प्रेरित किया |

उनका मानना था कि छुआ-छूत जैसे अभिशाप को खत्म करने का बीड़ा ऊंची जातियों के लोग उठा सकते हैं. इसके लिए उन्होंने कई आंदोलन छेड़े और व्रत रखे जिसके बाद कई मंदिरों को सभी के लिए खोल दिया गया.महात्मा गांधी राज्य में अधिक शक्तियों को निहित करने के विरोधी थे | उनकी कोशिश ज्यादा से ज्यादा शक्तियों को समाज में निहित किया जाए और इसके लिए वह गांव को सत्ता का प्रमुख इकाई बनाने के पक्षधर थे | इसके उलट आंबेडकर समाज के बजाए राज्य को ज्यादा से ज्यादा ताकतवर बनाने की पैरवी करते थे |


आंबेडकर के विचार

[edit]

गांधी के विपरीत डॉ. आंबेडकर पाश्चात्य दार्शनिक मूल्यों के आधार पर भारत का नवनिर्माण करना चाहते थे। पाश्चात्य दर्शन का अर्थ भौगोलिक नहीं है। पाश्चात्य दर्शन का अर्थ है तर्क आधारित दर्शन जबकि गैर पाश्चात्य दर्शन को आस्था आधारित दर्शन कहा जाता है। डॉ. आंबेडकर आधुनिक मूल्यों जिसके केंद्र में ईश्वर के स्थान पर मनुष्य है, आस्था के स्थान पर तर्क है, धर्म के स्थान पर विज्ञान है, और लोक-कल्याण है, के आधार पर भारत का नवनिर्माण करना चाहते थे। गांधी वर्ण-व्यवस्था के आधार पर हिंदू समाज का नवनिर्माण करना चाहते थे। जबकि डॉ. आंबेडकर के विचार से वर्ण व्यवस्था के आधार पर समाज का नवनिर्माण नहीं हो सकता है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘जाति का विनाश’ में अपने विचारों को रखा है। Ambedkar_speech_at_Yeola

आंबेडकर का मत है कि जाति ने हिंदुओं को बर्बाद कर दिया है। चातुर्वर्ण के आधार पर हिंदू समाज का पुनर्गठन असंभव है, क्योंकि वर्ण व्यवस्था एक ऐसे बर्तन की तरह है, जिसमें छेद है या ऐसे आदमी की तरह नाक बह रही है। यह सिर्फ अपने गुण के आधार पर अपने को बनाए नहीं रख सकती और इसके जाति व्यवस्था के रूप में पतित होने की अंतर्जात क्षमता है, जब तक इसके साथ कानूनी शक्ति न जोड़ी जाए, जिसे वर्ण का नियम तोड़ने वाले हर आदमी पर लागू किया जा सकता हो।

डॉ. आंबेडकर वर्ण व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए हिंदू धर्मशास्त्रों को भी डाइनामाइट लगाकर उड़ाने की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। 1927 में उन्होंने स्वयं मनुस्मृति जलाई थी। डॉ. आंबेडकर अपने आदर्श समाज के विषय में कहते हैं कि ‘मेरा आदर्श एक ऐसा समाज होगा, जो स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व पर आधारित हो।’ इसकी विस्तृत व्याख्या भी वे करते हैं। यहां यह ध्यान देना भी उचित होगा कि डॉ. आंबेडकर जब भी बात करते हैं तो वे भारतीय समाज के पुनर्गठन की बात करते हैं, जिसमें हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, अस्पृश्य एवं आदिवासी सभी सामाजिक तबके शामिल हैं। गांधी जब भी बात करते हैं तो केवल हिंदू समाज के पुनर्गठन की बात करते हैं।

सामाजिक विचारों की तरह डा. आंबेडकर के आर्थिक विचार भी स्पष्ट एवं पारदर्शी हैं। वे भारत की राजनीतिक प्रणाली लोकतंत्र के सिद्धांतों के आधार पर चलाना चाहते थे। लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि ‘लोकतंत्र, सरकार का रूप और शासन पद्धति है, जिसके द्वारा लोगों के आर्थिक और सामाजिक जीवन में बिना रक्तपात के क्रांतिकारी परिवर्तन किए जाते हैं।’ आगे वे कहते हैं कि लोकतंत्र, सरकार का एक स्वरूप मात्र नहीं है।

यह वस्तुतः साहचर्य की स्थिति में रहने का एक तरीका है, जिसमें सार्वजनिक अनुभव का समवेत रूप से संप्रेषण होता है। लोकतंत्र का मूल है, अपने साथियों के प्रति आदर और सम्मान की भावना।

डॉ. आंबेडकर का मत है कि लोकतंत्र चार स्तंभों पर निर्भर हैं-

1. व्यक्ति अपने आप में एक सिद्धि है।

2. व्यक्ति के कुछ अहरणीय अधिकार होते हैं, जिनकी गारंटी उसे संविधान द्वारा दी जाए।

3. कोई विशेषाधिकार प्राप्त करने की पूर्व शर्त के रूप में किसी व्यक्ति से यह अपेक्षा न की जाए कि वह अपने संवैधानिक अधिकारों में से किसी अधिकार का परित्याग करे।

4. राज्य दूसरों पर शासन करने के लिए गैर सरकारी लोगों को शक्तियां प्रत्यारोपित न करे।

डा. आंबेडकर पाश्चात्य दर्शन की लोकतंत्र की अवधारणा के आधार पर भारत की राजनीतिक सत्ता का पुनर्गठन चाहते हैं। जिसमें स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुत्व व व्यक्ति की गरिमा जैसे मूल्यों को मान्यता दी गई है। वे शासन की शक्तियों को व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में विभाजित करना चाहते हैं। जबकि गांधी रामराज्य के रूप में एकात्मक शासन स्थापित करने का प्रस्ताव करते हैं जो पूर्णतः जन विरोधी अवधारणा प्रमाणित हो चुकी है।

इस प्रकार डॉ. आंबेडकर और महात्मा गांधी दो भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधि हैं। वैश्विक संदर्भ में आंबेडकर पाश्चात्य दर्शन (तर्क) के पक्ष में खड़े हैं तो गांधी गैर पाश्चात्य दर्शन (आस्था) के पक्ष में खड़े हैं। भारतीय संदर्भ में डा. आंबेडकर बौद्ध दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं तो गांधी वैदिक दर्शन का।

भारत के सवर्ण बुद्धिजीवी गांधी और आंबेडकर के विषय में भ्रामक प्रचार करते हैं कि दोनों की मंजिल एक है लेकिन रास्ते अलग-अलग। वास्तव में दोनों की मंजिलें भी अलग-अलग हैं और रास्ते भी अलग हैं। डा. आंबेडकर आधुनिकता के वाहक हैं तो गांधी वैदिक धर्म का पुनरुत्थान चाहते हैं। दोनों के विचारों का संघर्ष ही आज की राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक संघर्षों के मूल में है। इस विचार को सवर्ण बुद्धिजीवी जितना जल्दी स्वीकार कर लेंगे, भारत का भला उतनी ही जल्दी होगा।